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बुधवार, 7 जुलाई 2021

बड़ी मूर्ती,छोटी मूर्ति की बातचीत!-- हेमेन्द्र सिंह राठौङ तेना

बड़ी मूर्ती,छोटी मूर्ति की बातचीत!-- हेमेन्द्र सिंह राठौङ तेना 
झूंझार की व्यथा
कार्पोरेट जगत की कई मंजिला ऊँची कांक्रीट, सीमेन्ट और ईटों की खोखली दसों बिल्डिंगो के मध्य मे दो खण्डित देवलियां (मूर्तियाँ) पास बैठी एक अस्सी नब्बे साल की बूढ़ी महिला से बातें कर रही थी ‌।

बङी देवली (मूर्ति) बोली~

"मेरा जन्म एक राजपूत परिवार में हुआ था और मैं मेरी वंश परम्परा का मोभी (सबसे बडा और उत्तराधिकारी) था तो मेरे जन्म पर रावळे में जश्न होना लाजिमी था, उस दिन शायद पांचम(पंचमी)थी पुरा रावळा दीयों से सजाया गया रावळे के कगुरों पर बन्दूक धारी ठाकुरों और कुंवरो नें गोलियों की गड़गड़ाहट से आकाश को गुंजयमान कर दिया था।

अभी मैंने अपनी उम्र के तीन पङाव ही पार किए होंगे की तभी एक दिन रावळे में अचानक सन्नाटा छा गया खबर आई की ठाकुर साहब महाराजा के साथ लङाई मे काम आ गए । मुझे ज्यादा कुछ तो पता नहीं चला पर उस दिन बहुत सारे लोग मेरे पास आए और सब लोग मुझे ठाकुर साब ठाकुर साहब कह के पुकार रहे थे इससे मुझे अचंभा भी हो रहा था की कल तक मेरे पिताजी को ठाकर साब कहने वाले लोग आज मुझे कुंवर सा की जगह ठाकुर साब क्यों कह रहे हैं ।

मेरे माता जी और काकोसा ने मुझे तलवार बाजी, घुङसवारी और युध्दकला में दक्ष किया पर जब मैने अठारहवां साल पार किया होगा तभी एक दिन अचानक रावले मे फिर सन्नाटा छा गया था, ठीक वैसा ही जैसा पिताजी के युध्द मे काम आने के  दिन हुआ था फिर मेरे बुढे हो चुके कामदार 'बाबु जी मोहते' ने बताया कि ठाकुरों देश आजाद हो गया है और अंग्रेज अपने बोरियाँ बिस्तर समेट कर चले गए हैं और साथ मे हमारे बोरिये बिस्तर भी गोल कर दिए है और अब राजतंत्र की जगह लोकतंत्र ने ले ली है।

उस दिन के बाद धिरे धिरे मेरी आर्थिक स्थिति  कमजोर हो गई  जिस कारण अब मेरे नौकर, मेरे सैनिक,  मेरे कामदार, मेरे बावरची के साथ ही साथ मेरे ऊँटों और घोङो के टोळे ने भी मेरा साथ छोङ दिया था । अब बस रहने के लिए रावळा था और चढने के लिए एक नौलखा जो शायद इस विपरीत परिस्थितियों में भी मेरे साथ लङ कर जीवित रहने में कामयाब रहा था ।

धीरे-धीरे समय बीत रहा था एक दिन तेज आँधी और भारी बारिश के बीच इन्द्र देव ने ऐसा कहर ढाया की सब ध्वस्त हो गया । भयंकर धमाके के साथ क्षणप्रभा(बिजली) नें एक क्षण में रावळे को‌ खण्डहर में बदल दिया । अब विरासत के नाम पर केवल कोटङी बची थी जो मेहमानों और भाई भाई-बंधुओं के लिए हथाई और रात्री वास का एकमात्र स्थल था।

एक दिन झांझरके मैं अपनी उसी कोटङी के बाहर सोया मंद बयार में गुज़रे वक्त को याद कर ही रहा था कि तभी पास के नीम पर एक कौआ  धमका और अपनी चिर परिचित आवाज मे बांगे मारने लगा, चूंकि मे शकुन मे विश्वास रखता था, अतः प्रात:काल में कौवे की आवाज सुनकर मुझे लगा की आज दिन भर में जरूर कोई मेहमान आएंगे पर मैंने यह कतई नहीं सोचा था की आज इस कोटङी मे मुझे  स्वयं यमराज की मेहमाननवाजी करनी पड़ जाएगी ‌‌।

मैं ये सब कुछ कल्पना कर ही रहा था कि कोटङी की तरफ हांफते हांफते एक सोलह एक साल की बालिका आती दिखी, क्षण भर में वह समीप आ पहुंची और हांफते हुए बोली " दाता गजब हो ग्यो एक कटक आई अर् म्हारी गायों घेर न लेईगा, थें खाताक हालो"

"बाई पेलां आ बता तूं है कुंण??"

"दाता हू धीर दा री बेटी हूँ आज बापू गऊंतरे (काम से बाहर) गियोङा है अर् जावता कैर गिया हा के कोई अबकाई आवे तो तुरत ही ठाकरां खनै पूगती हुजे, जकाऊं हूं पैलपोत थां खनै आई हूं, थै खताउळ करो ।

मैंने मन ही मन सोचा यह लङकी और धीर दा कितने भोले हैं, जिन्हे अभी तक यह पता ही नही हैं की राजाओं के राज चले गए हैं और ठाकुरों के पास अब कुछ नहीं है । दुसरे ही पल विचार आया की मेरे पास कुछ नहीं होते हुए भी इस लङकी को मुझ पर विश्वास तो है कि ठाकुर अपने प्राण देकर भी मेरी गायें बचा लेंगे इसी विश्वास के कारण ही तो यह लङकी सबसे पहले मेरे पास आई है इसलिए मुझे इसकी सहायता करनी चाहिये, अगर आज में इसे ना कहता हूँ तो मेरे क्षत्रिय धर्म और मेरे पूर्वजों पर कलंक लगेगा ।

यही सोचकर मैंने अपने बङे बेटे पदमे (पदम सिंह) को आवाज दी,

" ऐ पदमा ,  फुड़ती कर फुड़ती, फटाआफट्ट बैरियां लारे वार चढणों है ।

मेरा इतना कहना ही हुआ और पदमा हाथ मे ठकुराणी की पुरानी ओढनी में लपेटी हुईं तथा जंग के कारण भूरी पड़ चुकी तलवार के साथ हाज़िर हो गया ।।

मैने समय की नज़ाकत को समझते हुए घोङे पर जीण डालना उचित नही समझा और अपने नौलखे घोड़े के गर्दन पर हाथ फेरते हुए कहा "थूं है तो घणोंई घोड़ो पंण आज थारे माथे गऊ माता रो भार है, आज जे थूं बैरियों रे जोङे ले चाल अर जे कोई जीवतो परो जावे तो हूँ रजपूत नीं कैवाऊं, आ म्हारी आंण है , हे ! म्हारा नौलखा, आज गायों री रक्षा अर रजपूती रे मान रो भार थारे पगां माथे है ; सेंठो रेजे ।।

घोङा अपने पैरों की ताकत दिखाते हुए एक ही झटके मे हवा से बाते करने लगा था शायद उसे भी आभास हो गया था की आज मुझे अपने स्वामी का कर्ज उतारने का मौका मिला है तभी मुझे आभास हुआ किसी दुसरे घोङे की टापे वातावरण को गुंजयमान कर रही है कुछ ही क्षण मे देखा मेरे पास मे अपनी बसेरी पर दो हाथ लम्बे भाले के साथ पदमा होङ लगा रहा था शायद उसे मरने और मारने की उत्सुकता मुझसे भी अधिक थी ।
मैने कहा "पदमा थूं क्यू आयो?"

उसने कहा "जिसा जे आज आप घरां रेवता तो आपरी माँ रो दूध लाजतो, अर जे हुं घरे बैठतो तो म्हारी माँ रो दूध लाजतो,अर हुं बां मिंनखां मुं नीं हुं जका प्राणां रे मोह में आपरी मां रे दूध अर रजपूती नें लजा देवे । मनैं प्राणां सुं तनिक भी मोह नीं है; मन्नें म्हारी रजपूती अर धर्म री लाज बचावतां प्राणोत्सर्ग करंण में घणों अंजस हुसी ।।

यह बात सुनकर मेरा सीना और चौङा हो गया था और मुझे गर्व भी हो रहा था की मेरे द्वारा दी गई शिक्षा कामयाब रही है और सही भी है धजा(अपने राज्य), धरा(अपनी मातृ भूमि), धर्म और धेनु (गायों) पर आंच आए और किसी राजपूत का खुन न खोले यह तो असंभव है ।

कोई तीन कोस की दूरी तय की होगी की हमे गायों को ले जाते दुश्मन दिख गए मैंने और कुंवर ने दुश्मनों को ललकारते हुए कहा "अरे ओ हिंजड़ां" एक एकली सवासणीं री गायां घेरतां थानें लाज नीं आई । गायों पाछी दे दो, नीं तो आवोरा दो दो हाथ कर लां ; इयों मुक पशुओं माथे कई जोर करो , मर्द हो तो आवोरा मैदान में, और हां बा तो नान्हीं सी टिंगरी ही जंण गायों घेर लाया, बाकी तो सौ हिंजड़ा भी मिलर एक मरद री बरात कौन लुट सकै । और जको कृत्य थैं किन्हो है बो हिंजड़ापंणें सुं कम कौनीं ।

वे लोग संख्या में दस थे और हम दो शायद इसीलिए वो ठहाके मारकर हँसे और उनमे से उनका सरदार बोला "ठाकरों घरे बैठा रेवो कनीं क्यूं सुथा बैठा घर में काळिन्दर (सांप की प्रजाति - ब्लैक कोबरा) घालो, ठाकरों थें तो मरो साथे इण टाबर ने ही मरावो; बोला बोला घरे परा जावो ऐ गायों म्हे आज दों न कोई काल दों । जको करणो व्है करलो"  ।

इतना सुनते ही पदमा जय माँ भवानी का उद्घघोष करता हुआ उन पर ताटका मैने भी ललकारते हुए तलवार से वार शुरू कर दिए लङते हुए थोङा ही समय हुआ होगा की किसी कायर ने पीछे से वार किया और मेरा सर धङ से अलग कर दिया, मेरा शीश लुढकता हुवा दूर जा गिरा और मै बिना शीश तलवार चलाता रहा जिससे मेरा क्षत्रियत्व और दुगुना हो गया और मै उस कटक का किचर घाण निकालने लगा । थोङी देर बाद मेरे दूर पङे शीश नें मेरे धङ और पदमे के शरीर को ठण्डे पङते हुए और अपने आठ सैनिकों को मरवाकर दो दुश्मनों को भागते देखा था ।
आज जब धीर दा अपने मेहमानों के यहा से जब वापस आए तो उस पौती ने पुरी बात बताई तो धीर जी के घर के सभी सदस्यों की आँखे नम थीं और रूहासे गले से धीर दा के मुँह से बस यही निकला "वा राजपूतों वा निमस्कार है थोने अर धिनबाद है ऐड़ा शूरा जामण आळा मात पिता नें 
कुछ दिनों बाद ओरण मे स्थित मेरे शहादत स्थल पर धीर जी‌ नें अपने हाथ से बनाकर मेरी और पदमे की मुर्ति लगाई जहा धीर जी और उनकी बेटी हर माह की पांचम को रैवाण करवाते थे, रातीजगा देते थे और ढोली अपने ढोल के साथ  मेरे वीरता का बखाण करता था । पर जब से धीर दा ने संसार छोङा है उसके बाद से मै हर पांचम का इंतजार करता हूँ पर कोई नही आता है ।
हां कभी कभी गांव के भटके हुए वीर (व्यंग्यात्मक) हाथ मे दारू की पव्वे लिए मेरे चबुतरे पर आ बैठते हैं क्योंकि यह जगह ओरण मे है और सुनसान जगह है जिस कारण शाम ढलने के बाद यहा कोई नहीं आता है जिससे इन वीरों के तृप्त होने तक कोई व्यवधान नही पङता ।
कुछ समय पहले कुछ एक गाङियों में कुछ अंग्रेजी बोलने वाले लोग आए थे उन्होने आस पास के क्षेत्र की सफ़ाई करवाई तो मुझे लगा शायद इन लोगो को मेरे बारे मे पता चला होगा और यह लोग शायद मेरे प्रति  सम्मान जताने के लिए आए होगे पर ऐसा कुछ नहीं था । वे किसी कम्पनी से थे और यहा बिल्डिंग बनाना चाहते थे । कुछ समय बाद चारों और बड़े बड़े भवन बन गए , सीसी सङके बन गई; पर  इस बीच मेरा अस्तित्व बच गया । शायद पास मे पार्क बन रहा था और मेरी देवली पार्क मे आती थी इसलिए थोङी मानवता दिखाने के लिए उन्होने मेरी जगह को छोङ दिया था । और पास मे साईं बाबा का मन्दिर बना दिया था जहा कई अर्ध्दनग्न  बालाएं आती थी जिसे में देख नहीं पाता था और अपने आप को धरती मे गढाने का असफल प्रयास करता था। 
मेरे सामने ही एक और मुर्ति लगा दी गई है, जो मुझसे लगभग  पाँच फुट ऊपर है और उसने नीला कोट और चश्मा पहन रखा है, तथा वहां हर साल बङा मेला लगता है और लोग उस बाबा के जयकारे लगाते है ।
एक दिन बङा सा हुजूम पार्क मे आया जिसका नेतृत्वकर्ता जोर-जोर से नारे लगा रहा था,
"सामन्त वाद मुर्दाबाद"
"विदेशियों भारत छोङो"
"सामंतों गाँव छोङो!!"
"सामंत वाद से आजादी - हम ले के रहेंगे आजादी "
ऐसे फलां फलां नारे लगा रहा था और किसी की जोर जोर से जय बोल रहा था शायद नीले कोट वाले व्यक्ति की जय बोल रहा था मुझे ज्यादा तो ज्ञात नही है पर इतना जरूर लग रहा है उस नीले कोट वाले व्यक्ति ने इन लोगो के लिए किसी बङे काम के लिए दुश्मनों से लङता हुआ काम आया होगा जिस कारण यह इतना पूजनीय है और अचानक उस नेतृत्वकारी युवक ने सभी को मेरी मूर्ति को इशारा करते हुए कहा यह प्रतिमा भी एक सामंत की है इसे उखाङ फेंको ‌। यह हमारे आदरणीय बाबा(नीले कोट वाली मुर्ति) के साथ इस पार्क मे फब नही रही है, उनके स्तर को गिरा रही है । इतने मे उस तथाकथित सेना ने मेरी मूर्ति पर हमला बोल दिया उन्होने मुझे उखाङने का प्रयास किया परंतु में मजबूत रहा पर उन लोगो ने मेरी मूर्ति के टुकड़े टुकड़े कर दिए ।
मुझे बाक़ी तो कुछ समझ मे नही आया पर मैने उस नेतृत्वकर्ता की आवाज को जरूर पहचान लिया वो और कोई नही धीर दा का पङपौता था और अभी उस कायर सेना का जिलाध्यक्ष था ।
मैं उन दूर जाते कायर भेङियो के झुण्ड को देख रहा था जो अपने आप को सेना बता रहे थे और मैं सोच रहा था कि उस दिन धीर दा के लिए मैं और मेरा बेटा प्राणोत्सर्ग नहीं करते तो धीर दा की तरह मेरे भी पोते  पड़पोते होते ; और मेरे पोते पड़पोते होते तो जरूर आज भी वे भारतीय सेना में देश हित भारत की पाक और चीन के साथ हुई लड़ाईयों में शहीद ही हूवे होते ना कि धीर दा के पड़पोते की तरह वोटबैंक की राजनीति के लि कृतघ्न होते ।
"क्यों कि वक्त बदला है रक्त नहीं" राजपूती रक्त आज भी वैसा ही है जैसा हल्दी घाटी और खानवा में बहा था, वैसा ही है जैसा पृथ्वी राज के समय तराईन में बहा था और वैसा ही है जैसा आऊवा में अंग्रेजों के खिलाफ कुशाल सिंह चांपावत के नेतृत्व में बहा था ‌। कितनें उदाहरण गिनाऊं, कौनसे उदाहरण गिनाऊं, पांच बताउं तो पांचसौ छूटते हैं ।

इस तरह नाम के पीछे सेना लगा लेने से सेना नहीं बनती । वीरता तो खून में होती है ।
माल उडाणां मौज सुं, मांडे नंह रण पग्ग ।
माथा वे ही देवसी, जां दीधा अब लग्ग ।।


अर्थात - मौज से माल ऊड़ाकर ऐशो आराम करके सेना चलाने वाले कभी कुर्बानी नहीं दे सकते, शीश तो आज भी वही कटायेंगे जो पीढ़ीयों से कटाते आए हैं ।।

यह कहते हुए मेरा मन आत्मग्लानि से भर गया कि क्या मैंने अपना बलिदान ये दिन देखने के लिए दिया था कि धीर दा के वंशज और जाति-बिरादरी के लोग एक दिन मुझै लातों से सम्मानित करेंगे ।

यह बात सुनकर सामने बैठी उस बूढ़ी माई के आँखो से अश्रूधार फूट पड़ी ।
वो औरत और कोई नही धीर दा की वही बेटी है और बङी खण्डित मूर्ति के रूप मे ठाकुर और छोटी मुर्ति के रूप मे उनका बेटा पदमा है ।।

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