बढता वैश्विक सामाजिक असंतोष और सरकारों का दोहरा चरित्र।
भवानीसिंह राठौड़ 'भावुक'
आज सारे संसार में नस्लीय भेद, रंगभेद, जातिभेद, भाषाभेद इत्यादि अनेकों कारकों के जरिए इस कथित सभ्य मानव समाज में जगह जगह विभिन्न अवसरों पर सामूहिक घटनाएं घटित होती है जो इन्हीं असंतोषों के द्वारा उत्पन्न होती है।
आज अगर हम भारत की बात करें तो आजादी के पश्चात पिछले 75 वर्षों में संविधान द्वारा स्थापित व्यवस्था के जरिए विभिन्न राजनैतिक दलों ने वोट बैंक की रक्षा हेतु अपनी तुच्छ महत्वाकांक्षाओं की पूर्ति हेतु। भारतीय समाज में असंतोष की विषबेल को पल्लवित ही किया है।
पिछली सरकारों से लेकर वर्तमान तक चाहे किसी भी दल या गठबंधन का शासन रहा हो उन्होने देश के विकास के साथ साथ समाज के विनाश का कार्य ही प्रशस्त किया। जिसके कारण आज भारत के सभी प्रान्तों में सामाजिक असंतोष की लपटें उठती स्पष्ट दिखाई दे रही है।
अब सिलेसिलेवार चर्चा करते है उन विवादास्पद मुद्दों पर जो राष्ट्र की एकता और अखंडता में बाधक बनते जा रहे है।:----
1.सामाजिक समानता जातिगत भेदभाव मिटाना।
संविधान के समानता के अधिकार की रक्षा हेतु सभी सरकारों ने अपनी योजनाओं के जरिए धरातल पर जातिगत भेदभाव को मिटाने का सफल प्रयास किया, स्कूल-कालेज,कार्य स्थल, अंतर्जातिय विवाह इत्यादी आयोजन करके। मगर दूसरी तरफ वोटबैंक की रक्षार्थ आरक्षण व्यवस्था जो केवल 10 वर्षों के लिए ही लागू की गई थी उसे 75 साल तक बढाते रहे। जहां धरातल पर आज दलित, सवर्ण एक साथ बैठकर किसी रेस्टोरेंट में खाना खा सकते है वही उनके स्कूल सर्टिफिकेट में जाति का कालम यथावत रखकर एक समाज पर वरदहस्त रखा तो दूसरे समाज को उनके विपरीत खड़ा ही किया। समानता का सिद्धांत धराशायी हो गया। अल्पसंख्यक, बहुसंख्यक में समाज को बांट दिया। जबकि सरकारों को करना ये चाहिए था कि सबकी जाति सरकारी दस्तावेजों में भारतीय लिखना था। सब भारतीय होते, कोई ऊंचा या नीचा, अल्पसंख्यक या बहुसंख्यक नहीं होता। सबको योग्यता के अनुसार समान अवसर उपलब्ध होते। प्रतिभाओं का सम्मान होता और उनका पलायन रुकता।
2.हिंदु मंदिरों की सम्पति पर सरकार का नियंत्रण और मुस्लिम वक्फ़ बोर्ड को सब्सिडी देना।
सभी सरकारों ने हिंदु मंदिरों में आने वाले चंदे को सरकारी नियंत्रण में लिया तथा उसी पैसे को मुस्लिम वक्फ़ बोर्ड को मदरसा, हज यात्रा के बहाने सब्सीडी में बांट दिया। जिसकी वजह से तमिलनाडू जैसे राज्य में आज सरकार की इस निति के खिलाफ विरोध के स्वर बुलंद हो रहे है। इससे भी भारतीय समाज की एकरुपता खंडित हो रही है।
3.वेतनभोगियों की पेंशन को बंद करना और राजनेताओं की पेंशन बढाना।
सभी सरकारों ने राजनेताओं के वेतन और भत्तों सहित उनकी पेंशन में बढोतरी की। जबकि राज्य कर्मचारियों की पेंशन बंद कर दी गई। इसका समाज में गलत संदेश पहुंचा और जनता में आक्रोश पनपा।
4.राजस्थानी और भोजपुरी जैसी भाषाओं को मान्यता नहीं देकर केवल हिन्दी के विकास की पहल करना।
हिन्दी को राष्ट्भाषा बनाने के चक्कर में केंद्र सरकारों ने राजस्थानी, भोजपुरी जैसी भाषाओं की मान्यता को अटकाये रखा जिससे राजस्थान और दक्षिण भारत में हिन्दी विरोध के सुर बूलंद हुए। इससे भी भारत की भाषायी एकता और अखंडता को क्षति पहुंची। सरकारों को सभी क्षेत्रिय भाषाओं को मान्यता देकर राजकार्य की प्रथम भाषा अंग्रेजी/हिन्दी/ क्षेत्रिय भाषा रखना चाहिए।
इन्ही कारणों से आज भारतीय समाज में मनमुटाव दृष्टिगोचर हो रहा है और बार बार विभिन्न तरह के विरोध प्रदर्शन के जरिए जनता अपनी बात सरकार तक पहुंचाने का प्रयास भी करती है,मगर अफसोस इस बात का है कि ये सरकारें अपने राजनैतिक हितों की रक्षार्थ सामाजिक सौहार्द की बली चढाने को लालायित है।
ऐसे छोटे छोटे असंतोषजनक प्रदर्शन ही बड़ी क्रान्तियों के जनक होते है इस सिद्धांत को भी ये सरकारें भूला बैठी है।
आशा करता हूं इन सबको सदबुद्धि आये और भारतीय समाज की अखंडता अक्षुण्ण बनी रहे।
जय हिन्द।वंदेमातरम्।
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